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मानक हिन्दी के शुद्ध प्रयोग भाग 1

रमेशचन्द्र महरोत्रा

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6997
आईएसबीएन :81-7119-469-9

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सशक्त अभिव्यक्ति के लिए समर्थ हिंदी...

Manak Hindi Ke Shuddh Prayog 1 - A Hindi Book - by Ramesh Chandra Mahrotra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इस नए ढंग के व्यवहार-कोश में पाठकों को अपनी हिंदी निखारने के लिए हज़ारों शब्दों के बारे में बहुपक्षीय भाषा-सामग्री मिलेगी। इस में वर्तनी की व्यवस्था मिलेगी, उच्चारण के संकेत-बिंदु मिलेंगे-व्युत्पत्ति पर टिप्पणियाँ मिलेंगी, व्याकरण के तथ्य मिलेंगे-सूक्ष्म अर्थभेद मिलेंगे, पर्याय और विपर्याय मिलेंगे-संस्कृत का आशीर्वाद मिलेगा, उर्दू और अँगरेज़ी का स्वाद मिलेगा-प्रयोग के उदाहरण मिलेंगे, शुद्ध-अशुद्ध का निर्णय मिलेगा।

पुस्तक की शैली ललित निबंधात्मक है इस में कथ्य को समझाने और गुत्थियों को सुलझाने के दौरान कठिन और शुष्क अंशों को सरल और रसयुक्त बनाने के लिहाज़ से मुहावरों, लोकोक्तियों लोकप्रिय गानों की लाइनों, कहानी-क़िस्सों, चुटकुलों और व्यंग्य का भी सहारा लिया गया है। नमूने देखिए-स्त्रीलिंग ‘दाद’ (प्रशंसा) सबको अच्छी लगती है पर पुल्लिंग ‘दाद’(चर्मरोग) केवल चर्मरोग के डॉक्टरों को अच्छा लगता है। मैल, मैला, मलिन’ सब ‘मल’ के भाई-बंधु हैं।...(‘साइकिल’ को) ‘साईकील’ लिखनेवाले महानुभाव तो किसी हिंदी-प्रेमी के निश्चित रूप से प्राण ले लेंगे-दुबले को दो असाढ़ !.. अरबी का ‘नसीब’ भी ‘हिस्सा’ और ‘भाग्य’ दोनों हैं। उदाहरण-आप के नसीब में खुशियाँ ही खुशियाँ हैं। (जब कि मेरे नसीब में मेरी पत्नी हैं।)
यह पुस्तक हिन्दी के हर वर्ग और स्तर के पाठक के लिए उपयोगी है।

 

अंतर्राष्ट्रीय’ और ‘अंतरराष्ट्रीय’

 

दोनों स्पेलिंग सही है, पर बिलकुल अलग-अलग शब्दों के रूप में। इन का अर्थ-भेद पकड़ने के लिए ‘अंतर्’ और ‘अंतर’ का अंतर स्पष्ट करना जरूरी है। ‘अंतर्’, का अर्थ है ‘अंदर का’ या ‘के मध्य’ या ‘बीच में’। इस का प्रयोग ‘अंतर्द्वद्वं’, ‘अंतर्भूमि’, और ‘अंतर्लीन’–जैसे शब्दों में देखा जा सकता है। यह अंतःकरण’ और ‘अंतः पुर’-जैसे शब्दों में ‘अतः’ के रुप में प्रयुक्त होता है। ‘अंतर्राष्ट्रीय’ और ‘अंतर्देशीय’ शब्दों में ‘अंतर्’, व्यवहृत होने के कारण इन का अर्थ है ‘राष्ट्र के अंदर का’ ‘देश के अंदर का’। डाक-तार-विभाग द्वारा प्रसारित ‘अंतर्देशीय पत्र कार्ड’ केवल ‘देश के भीतर’ चलते हैं । उन पर अँगरेजी में छपे ‘इनलैंड लेटर कार्ड’ की सार्थकता ध्यातव्य है।

उपर्युक्त शब्दों से व्यतिरेक या विरोध दिखानेवाले शब्द हैं ‘अंतरराष्ट्रीय’ और ‘अंतरदेशीय’, जिन में ‘अंतर्’, नहीं, ‘अंतर’ प्रयुक्त हुआ है। ‘अंतर’ का अर्थ है ‘दूरी’ या ‘बाहर का’ या ‘से भिन्न’। ‘अंतर’ का रुप बदल कर ‘अंतः’ कभी नहीं होता। जब एक राष्ट्र, या देश का दूसरे राष्ट्र या देश से संबंध व्यक्त करना हो, तब ‘अंतरराष्ट्रीय’ या ‘अंतरदेशीय’ विशेषण का प्रयोग होगा।
अँगरेजी में ‘इंट्रा-’ (=विदिन) और ‘इंटर’- (=बिटवीन) लगा कर ‘इंट्रानेशनल’ और ‘इंटरनेशनल’ शब्द बनाए जाते हैं,  जिन में से पहले का समानार्थी है ‘अंतर्राष्ट्रीय’ और दूसरे का समानार्थी है ‘अंतरराष्ट्रीय’। एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश के संबंध ‘अंतरप्रदेशीय’, लेकिन ‘अंतर्देशीय’ होंगे। इसी प्रकार, उदाहरण के लिए पाकिस्तान से हमारे ‘अंतरराष्ट्रीय’ संबंध हैं, लेकिन हमारे ‘अंतर्राष्ट्रीय’ मामलों से उन का कोई संबंध नहीं है।

प्रतियोगिता या प्रतिस्पर्धा ‘अंतर्महाविद्यालयीन’, ‘अंतर्विश्वविद्यालयीन’ और ‘अंतर्क्षेत्रीय’ भी हो सकती है तथा ‘अंतरमहाविद्यालयीन’, ‘अंतरविश्वविद्यालयीन’, और ‘अंतरक्षेत्रीय’ भी; पाठक को शब्द की वर्तनी देख कर सही अर्थ निकालने में और लेखक को शब्द का अर्थ सोच कर सही वर्तनी लिखने में सावधानी बरतनी पड़ेगी।

 

अधिकांश और ‘अधिकतर’

 

‘अधिक’ और ‘अंश से बना ‘अधिकांश’ ऐसे शब्दों के साथ नहीं प्रयुक्त होना चाहिए, जिन से व्यक्त इकाइयाँ एक-एक कर के गिनी जा सकती हों। उदाहरण के लिए ‘अधिकांश विधायक’ और ‘अधिकांश ट्रेनें’ में ‘अधिकांश’ का प्रयोग ग़लत है। सही उदाहरण होंगे-‘अधिकतर विधायक’ और ‘अधिकतर, ट्रेनें’। हाँ, एक ही ट्रेन के बारे में कहा जा सकता है कि ‘अधिकाशं ट्रेन भरी है’ या ‘ट्रेन का अधिकांश भरा है।’

‘अधिकांश’ के अन्य सही प्रयोग देखिए-अधिकांश गेहूँ, अधिकांश गाना, अधिकांश माल, अधिकांश भीड़, अधिकांश कपड़ा, अधिकांश खेत, इत्यादि। किसी एक कपड़े या खेत का ‘कम या अधिक अंश’ हो सकता है, पर कई कपड़ों और खेतों में से ‘अधिक’ की बात करने पर वे ‘अधिकांश’ नहीं, ‘अधिकतर’ होंगे, उदाहरणार्थ ‘अधिकतर कपड़े’ और ‘अधिकतर खेत’। ‘अधिकांश पेड़’ का मतलब है ‘पेड़ों’ (की संख्या) में से तुलनात्मक रुप से अधिक’।
‘अधिकांश’ एकवचन रहता है (इकाई का हिस्सा व्यक्त करने के लिए) तथा उस से गिनी न जा सकनेवाली’ सीमा और मात्रा व्यक्त होती है, जैसे ‘अधिकांश मैदान या अधिकांश फ़्रिज खाली था’ में, जब कि ‘अधिकतर’ प्रायः ‘गिना जा सकनेवाला’ बहुवचन रहता है, जैसे ‘अधिकतर आदमी’। (‘अधिकांश आदमी’ नहीं, जब तक कि आदमी-विशेष के अपेक्षाकृत बड़े टुकड़े या अंश की बात न हो !)

‘अधिकतर संदूक भर गया’ ग़लत है, ‘अधिकांश संदूक भर गया’ सही है। उधर ‘अधिकतर संदूक भर गए’ सही है, और ‘अधिकांश संदूक भर गए’ ग़लत है। अलबत्ता ‘अधिकतर संदूकों का अधिकांश भर गया’ भी सही है।
‘अधिकतर फिल्म बेकार थी’, ग़लत है, ‘अधिकांश फिल्म बेकार थी’ सही है। ‘अधिकतर भीड़ चली गई’ ग़लत है, ‘अधिकतर लोग चले गए’ सही है। इस के विपरीत ‘अधिकांश भीड़ चली गई’ सही है, ‘अधिकांश लोग चले गए’ ग़लत है। ‘उस की बात का अधिकांश (संज्ञा) बकवास है’ या ‘उस की अधिकांश (विशेषण) बात बकवास है’ सही है।‘ उस की अधिकांश बातें बकवास है’ भी ग़लत हैं भी सही है। ‘उस की अधिकतर बात बकवास है’ ग़लत है और ‘उसकी अधिकांश बातें बकवास हैं’ भी ग़लत है।

यदि ‘अंश’ या ‘भाग’ के साथ ‘अधिकांश’ और ‘अधिकतर’ में से एक को लगाने की मजबूरी आ पड़ा तो ‘अधिकतर’ लगाया जाएगा, अर्थात् ‘अधिकतर अंश’ और ‘अधिकतर भाग’ सही है, ‘अधिकांश भाग’ ग़लत, वरना यह ‘अधिकांश अंश’ के बराबर हो जाएगा !

 

अफवाह’ और ‘किवदंती’

 

‘अफवाह’ हिंदी और उर्दू में एकवचन है, अरबी में बहुवचन। हिंदी में इस का अर्थ है ‘उड़ती खबर’, जब कि अरबी में इस का मूल अर्थ है ‘बहुत से मुँह’। यह शब्द ‘फ़ूह’ का बहुवचन है। ‘फूह’ का धातुगत अर्थ है ‘बोलना’ और शब्दगत अर्थ है ‘मुँह’ (अर्थात्, ‘जिस से बोला जाए’)। ‘उड़ती खबर’ बहुत से मुँहों के माध्यम से फैलती है, इसीलिए ‘अफवाह’ शब्द उसी अर्थ का वाचक बन गया। हिंदी में इस के बहुवचन-रुप ‘अफवाहें’ और ‘अफवाहों’ बनते हैं (क्योंकि वहाँ न तो ‘फ़ूह’ का अता-पता है और न ‘अफ़वाह’ के भीतर की बहुवचनात्मकता का)।

‘उड़ती खबर’ यानी ‘अफ़वाह’ सच्ची भी हो सकती है और झूठी भी, लेकिन कुछ लोग ‘अफवाह’ का अर्थ सीधे मिथ्या समाचार’ लगाते हैं। वस्तुतः ‘खबर’ जब तक अप्रामाणिक रहती है, तब तक ‘अफवाह’ रहती है, जब उस के सही या ग़लत होने की पुष्टि हो जाती है, तब वह लुप्त हो कर क्रमशः ‘तथ्य’ या ‘गप्प’ बन जाती है।
‘श्रुति’ का एक अर्थ ‘ख़बर’ भी है, इसलिए स्थूल रूप से ‘जनश्रुति’ जनता में फैली हुई ख़बर हुई-सच्ची या झूठी। इसलिए इसे ‘अफ़वाह’ का पर्याय कहा जा सकता है। ‘जनश्रुति’ के समान ‘किवदंती’ का भी स्थूल अर्थ तो ‘अफवाह’ ही है, पर सूक्ष्म अर्थ में वह भी ‘जनश्रुति’ है, अर्थात, ऐसी बात, जिसे लोग परंपरा से सुनते चले आए हों और जिस के बारे में यह पता न चले कि वह वस्तुतः किस के द्वारा चलाई गई होगी।’ इसीलिए इस का एक अर्थ ‘लोकोक्ति’ तक बता दिया जाता है।

‘किंवदंती’ के अर्थ से मिलते-जुलते अन्य शब्द ‘जनरव’ और ‘प्रवाद’ मिलते हैं। ‘किंवदंती में प्रयुक्त ‘वदंती’ का संस्कृत में अर्थ ‘भाषण’ या ‘प्रवचन’ है और ‘किंवदंती’ के ‘किम,’ (कौन), ‘वद’ (बोलना), और ‘अंत’ इस शब्द का रहस्य स्वयं खोल रहे हैं।

 

अभिज्ञ’ और ‘अनमिज्ञ’

 

‘भिज्ञ’ कोई शब्द नहीं है। कुछ लोग समझ बैठे हैं कि ‘अज्ञानी’ के ‘अ’-के समान ‘अभिज्ञ’ का भी ‘अ’-नकारात्मकता के लिए है और बचा हुआ ‘भिज्ञ’ सकारात्मक अर्थ ‘जानकार’ के लिए है। इसी प्रकार, वे समझते हैं कि ‘अनजान’ के ‘अन-’ के समान ‘अनभिज्ञ’ का भी ‘अन,’ नकारात्मकता के लिए है और बचा हुआ ‘भिज्ञ’ फिर ‘जानकार’ के लिए है। (लेकिन यह पूरी गाड़ी ग़लत पटरी पर है।)

वस्तुतः ‘जानकार’ के लिए शब्द ‘अभिज्ञ है, जिस के खंड ‘अभि’ और ‘ज्ञ’ हैं। ‘अभि’ माने ‘ज्ञानी, जानने वाला, परिचित’। ‘अभि’ के मूल में ‘भा’ धातु है, जिस का अर्थ ‘दीप्ति है, और ‘ज्ञ’ के मूल में ‘ज्ञा’ धातु है, जिस का अर्थ है ‘जानना, परिचित होना, सीखना’।

अब ‘अनभिज्ञ’ शब्द से सही-सही ‘अभिज्ञ’ होने के लिए आगे बढ़ा जाए। ‘अनभिज्ञ’ की रचना ‘अभिज्ञ’ के पूर्व ‘न’ जोड़ने से हुई। यह ‘न’ पलट कर ‘अन्’ हो गया, जिस से शब्द का रूप ‘अन्+अभिज्ञ’ अर्थात् ‘अनभिज्ञ’ हो गया है।
‘ज्ञ’ को जोड़ कर बनाए गए उपर्युक्त तथा कुछ अन्य शब्दों के अर्थों का रस-पान कीजिए-अज्ञ (ज्ञानरहित, अचेतन, जड़, नासमझ, मूर्ख); अनभिज्ञ (अनजान, अनभ्यस्त, अनाड़ी, अपरचित, नावाक़िफ, बुद्धिहीन, मूर्ख) अभिज्ञ (जानकार, जानने वाला, अनुभवशील, कुशल); अल्पज्ञ (कम ज्ञान रखनेवाला, नासमझ) तत्तवज्ञ (आजकल ‘तत्वज्ञ’ भी) (तत्व जाननेवाला, दार्शनिक, ब्रह्मज्ञानी); मर्मज्ञ (रहस्य जानने वाला तत्वज्ञ’) रसज्ञ (कुशल, निपुण, काव्य-मर्मज्ञ); विज्ञ (कुशल, चतुर, प्रतिभावान्, प्रवीण, बुद्धिमान्) शास्त्रज्ञ (शास्त्रवेत्ता); सर्वज्ञ (सर्वज्ञाता, सब-कुछ जाननेवाला परम ज्ञानी)।
ऊपर लिखे गए सभी शब्द विशेषण हैं, पर ‘सर्वज्ञ’ संज्ञा के रूप में भी आगामी अर्थों का वाचक है-ईश्वर, जिनदेव, तीर्थंकर, देवता, बुद्ध शिव।

 

अवस्थित ’ और ‘उपस्थित’

 

> संस्कृत में ‘स्था’ का अर्थ है ‘खड़ा होना, ठहरना’ जिस से बने ‘स्थित’ शब्द का अर्थ निकलता है ‘खड़ा हुआ, उठ कर खड़ा होनेवाला, ठहरनेवाला विद्यमान’।
‘अवस्था’ और ‘अवस्थित’ दोनों में ‘अव’ जुड़ा हुआ है, जिस का काम रहता है शब्द में चिपक कर उस के अर्थ में ‘नीचे, कमी, अनुचित दूर, संकल्प, परिव्याप्ति, विशेष रूप से’-जैसे किसी अर्थ को जोड़ देना। फलतः ‘अवस्था’ अर्थ की दृष्टि से जोड़-तोड़ के बाद सीधा-सा ‘स्थिति-वाचक है (विशेष अर्थ में आयु का उतना भाग ‘अवस्था’ है, जितना कथित समय तक बीत चुका हो), जब कि ‘अवस्थित’ शब्द अर्थ में फैल-फाल कर ‘रहा हुआ, ठहरा हुआ, टिका हुआ, सहारा लिया हुआ, किसी विशिष्ट स्थान में रुका हुआ किसी विशिष्ट अवस्था में आया हुआ’ और ‘उद्देश्य में स्थिर’ या ‘दृढ़’ के लिए इस्तेमाल होता है।
‘उप’ के अनेक अर्थो में एक अर्थ ‘निकटता’ है, इसलिए जब ‘स्थित’ माने ‘विद्यमान’ है, तो उपस्थित’ माने ‘पास विद्यमान’ या ‘निकट पहुँचा हुआ’ हुआ।

जिस प्रकार ‘अवस्थित-अवस्था’ का जोड़ा मिलता है, उस प्रकार ‘उपस्थित-उपस्था’ का जोड़ा नहीं मिलता; हाँ, ‘उपस्थानम्’ और ‘उपस्थ’ जरूर मिलते हैं। ‘उपस्थानम्’ का अर्थ ‘निकट पहुँचना’ के बाद किस खूबसूरती से ‘पूजा-करना’ ‘देवालय’, ‘स्मरण’ भी होता चला गया है, यह देख कर संस्कृत भाषा की जय बोलने को मन करता है। दूसरी ओर, ‘उपस्थ’ के अर्थों के फैलाव में भी संस्कृत का कमाल  देखिए-‘शरीर का भध्य भाग, गोद, पेड़ू कूल्हा, गुदा, जननेंद्रिय’।
‘स्था’ ऊपर उदाहृत शब्दों में तो है ही, ‘संस्था, संस्थान, स्थान’ आदि में भी मौजूद है। जाहिर है कि इन सब में भी ‘स्थित, टिकाऊ, विद्यमान’ होने का भाव विद्यमान है।

अंत में शीर्षक के दोनों शब्दों के प्रयोग का एक उदाहरण और-इस समय मैं अपने घर में ‘अवस्थित’ होते हुए भी सेवा में ‘उपस्थित’ हूँ।


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